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या जा॒मयो॒ वृष्ण॑ इ॒च्छन्ति॑ श॒क्तिं न॑म॒स्यन्ती॑र्जानते॒ गर्भ॑मस्मिन्। अच्छा॑ पु॒त्रं धे॒नवो॑ वावशा॒ना म॒हश्च॑रन्ति॒ बिभ्र॑तं॒ वपूं॑षि॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yā jāmayo vṛṣṇa icchanti śaktiṁ namasyantīr jānate garbham asmin | acchā putraṁ dhenavo vāvaśānā mahaś caranti bibhrataṁ vapūṁṣi ||

पद पाठ

याः। जा॒मयः॑। वृष्णे॑। इ॒च्छन्ति॑। श॒क्तिम्। न॒म॒स्यन्तीः॑। जा॒न॒ते॒। गर्भ॑म्। अ॒स्मि॒न्। अच्छ॑। पु॒त्रम्। धे॒नवः॑। वा॒व॒शा॒नाः। म॒हः। च॒र॒न्ति॒। बिभ्र॑तम्। वपूं॑षि॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:57» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:2» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब गृहाश्रम के कृत्य को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (याः) जो (नमस्यन्तीः) सत्कार करती हुई (जामयः) चौबीस वर्ष की अवस्था को प्राप्त युवती ब्रह्मचारिणी (वृष्णे) वीर्यसेचन में समर्थ चालीस वर्ष की आयु को प्राप्त ब्रह्मचारी के लिये (शक्तिम्) सामर्थ्य की (इच्छन्ति) इच्छा करती और (अस्मिन्) इस संसार में (गर्भम्) गर्भ के धारण करने को (जानते) जानती हैं वे पतियों की (वावशानाः) कामना करती हुई (धेनवः) विद्या और उत्तम शिक्षायुक्त वाणियों के सदृश वर्त्तमान गौवें जैसे वृषभों को वैसे (महः) बड़े पूज्य (वपूंषि) रूपवाले शरीरों को (बिभ्रतम्) धारण और पोषण करनेवाले (अच्छ) श्रेष्ठ (पुत्रम्) पुत्र को (चरन्ति) ग्रहण करती हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वे ही कन्यायें सुख को प्राप्त होती हैं कि जो अपने से दुगने विद्या और शरीर बलवाले अपने सदृश प्रेमी पतियों की उत्तम प्रकार परीक्षा करके स्वीकार करती हैं, वैसे ही पुरुष लोग भी प्रेमपात्र स्त्रियों को ग्रहण करते हैं, वे ही परस्पर प्रीतिपूर्वक अनुकूल व्यवहार से वीर्यस्थापन और आकर्षण विद्या को जान गर्भ को धारण उसका उत्तम प्रकार पालन सब संस्कारों को करके बड़े भाग्यवाले पुत्रों को उत्पन्न कर अतुल आनन्द और विजय को प्राप्त होते हैं, इससे विपरीत व्यवहार से नहीं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ गृहाश्रमकृत्यमाह।

अन्वय:

या नमस्यन्तीर्ब्रह्मचारिण्यो जामयो वृष्णे शक्तिमिच्छन्त्यस्मिन् गर्भं धर्तुं जानते ताः पतीन् वावशानाः धेनवो वृषभानिव महर्वपूंषि बिभ्रतमच्छ पुत्रं चरन्ति ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (याः) (जामयः) प्राप्तचतुर्विंशतिवर्षा युवतयः (वृष्णे) वीर्यसेचनसमर्थाय प्राप्तचत्वारिंशद्वर्षाय ब्रह्मचारिणे (इच्छन्ति) (शक्तिम्) सामर्थ्यम् (नमस्यन्तीः) सत्कारं कुर्वन्त्यः (जानते) जानन्ति (गर्भम्) (अस्मिन्) संसारे (अच्छ) श्रैष्ठ्ये। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (पुत्रम्) (धेनवः) विद्यासुशिक्षायुक्ता वाच इव वर्त्तमानाः (वावशानाः) पतीन् कामयमानाः (महः) महान्ति पूज्यानि (चरन्ति) प्राप्नुवन्ति (बिभ्रतम्) धारकं पोषकम् (वपूंषि) रूपवन्ति शरीराणि ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ता एव कन्याः सुखं प्राप्नुवन्ति याः स्वाभ्यो द्विगुणविद्याशरीरबलान् पतीनभिरूपान् हृद्यान्सुपरीक्ष्य स्वीकुर्वन्ति तथैव पुरुषा अपि हृद्या भार्या उपयच्छन्ति त एव परस्परेण प्रीत्यानुकूलव्यवहारेण वीर्य्यस्थापनाऽऽकर्षणविद्यां बुध्वा गर्भं धृत्वा सुपाल्य सर्वान् संस्कारान् कृत्वा महाभाग्यान्यऽपत्यानि जनयित्वाऽतुलमानन्दं विजयञ्च प्राप्नुवन्ति नातोऽन्यथा व्यवहारेण ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. त्याच कन्या सुख प्राप्त करतात ज्या आपल्यापेक्षा दुप्पट विद्या व शरीरबल असणाऱ्या आपल्यासारख्याच प्रेमी पतीची उत्तम प्रकारे परीक्षा करून त्याचा स्वीकार करतात. तसेच पुरुषही प्रिय स्त्रियांना ग्रहण करतात. तेच परस्पर प्रीतिपूर्वक अनुकूल व्यवहाराने वीर्य स्थापन करून व आकर्षण विद्या जाणून गर्भ धारण करून त्याचे उत्तम प्रकारे पालन करून, सर्व संस्कार करून अत्यंत भाग्यवान पुत्र उत्पन्न करून अतुल आनंद भोगतात व विजय प्राप्त करतात. यापेक्षा विपरीत व्यवहार करीत नाहीत. ॥ ३ ॥